
दिनेश यादव
१. विषय प्रवेश :
नेपालीय मैथिली भाषी क्षेत्रमे बहुत बेसी कथाकार वा साहित्यकारसभ नइ छैथ । सीमित लोक, मुदा चुनल–गांथल मात्र छैथ । अइ क्षेत्रक एकटा दुर्भाग्य थिक जे साहित्यिक सिर्जना, ग्रन्थ, पोथी वा पुस्तक बड मुस्किलसं भेटैत अइछ । जौ किनको पढवा हुए त लाईब्रेरी जाऊ वा किनको सं फोटोकपी मागि लेब मात्र विकल्प अइछ । जौ इस्कुलमे पढाई होमेवाला पाठ्यपुस्तकके फोटोकपी करबैय पडैत छै त आन पोथीके गप्पे छोइड दियौन् । अप्पन जेबीसं पुस्तक प्रकाशन कएनिहार लोकैन बड कम भेटैत छैथ, ओतबे जतेक आंगुर पर गिन्ति कए सकैत छी । अइ कोटिक लोक जेसभ छैथ ‘अपिसियल कपी’ वा अपन प्रचारक दृष्टिसं मात्र पुस्तक प्रकाशन करैत छैथ । हा, अइमे अपवाद सेहो भेटत । काठमाण्डूसं मैथिली पुस्तक प्रकाशन करैवाला एकगोटा प्रेसक मालिकके कथनानुसार सौं कापीसं बेसी पोथी छपाबैयमे लेखकसभ हिच्किचाइत छैथ । कारण मैथिलीक पोथीक विक्री छइहे नइ, पाठकों बड कम छैन । तें मात्र गिन्तिक लेल किछु गोटा मैथिलीमे पुस्तक निकाइल रहल छैथ । पाठकजनसं ओकरा कूनू लेनाई–देनाई नई छइ । एहो एकटा कारणसं मैथिली पोथीसभ हरही–सुरही सभ ठाम नई भेटैत छइ । मैथिली भाषी क्षेत्रक लोकके एकटा परम्परा आ संस्कृति बैन चुकल अइछ –पढहब कम, मुदा देखब, सुनब आ बाजब बेसी । ओना पढबाकलेल पोथी सर्वसुलभ रहत तब ने पढहब । नेपालक दोसर भाषा थिक मैथिली । मुदा अइ भाषाक पोथीसभ दिबिया जराके खोजबाक अवस्था अइछ । एहिसं पैघ विडम्बना अउर कि भए सकैत अइछ ?
२. कथाकार आ कथा संग्रह:
अइ बेरक अनुसन्धानक यात्रा मैथिली कथा अइछ । तीनटा विषय :मैथिली कथा, कथाकार आ कथा संग्रह मूल अइछ । मुद्दा दुर्भाग्य कहि जे जई रुपेण विस्तृत अध्ययन होमाक चाहि से नइ भेल अइछ , अधुरा आ अधखिच्चि रहै गेल अइछ । कारण कथा, कथाकार आ कथासंग्रहक सूच्चीक आधिकारिक जानकारी कतौह नई छई । जे छई, अधुरा आ अपुरा एवं पुष्टि होमेवाला नइ छैक । तें जानकारी जुटाबैयमे बड परेशानीक अनुभूति होइत अइछ । खोजीके क्रममे सूची किछू लम्बा भेटल अइछ । मुदा निष्कर्षधरि पहुंचैत–पहुंचैत ओ अप्पन आकारके छोटियाबैत–छोटियाबैत बड सीमित भेल पुष्टि होइत छैक । पहिने कथा आ कथाकारक संग्रह मुश्किल, बादमे घरे–घरे जाकें पोथी खोजबाक वाध्यता छइ । अध्ययन आ अनुशन्धानके क्रममे इ तित अनुभव कियो कए सकैत अइछ । अई आलेखमे विशेषतः चाइरटा सामग्रीके विषयवस्तु बनाओल गेल अइछ : मैथिली कथाकारक दूटा कथा संग्रह आ मैथिली भाषीक दूटा नेपालीमे लिखल कथा (अनुवाद वा मौलिकपर अनभिज्ञ ?) । अइमे एकटा थपल विषय वस्तु अइछ, ब्राहमणेत्तर मैथिली कथाकार । एकरा सेहो एतह अध्ययनक सामग्री बनाओल गेल छैक । कथाकारक सूचीमे डा.धीरेन्द्रक तीनटा कथा संग्रह–‘कुहेस आ किरण’ (१९८२), ‘पझाइत घूरक आगि’ (१९८४), ‘शतपा आ मनु’ (१९८४) आ रामभरोस कापडि ‘भ्रमर’क तीनटा कथासंग्रह ‘तोरा सङ्गे जएवौ रे कुजवा’ (१९८७), हुगली उपर बहैत गङ्गा’ (२००९) एवं ‘एन्टिवायस’(२०१९) समावेश कएल गेल । तहिना, डा.रेवती रमण लालक ‘माधव नहि अएलाह मधुपुरसं’ (१९८८), डा. राजेन्द्र विमलक ‘ई हमरे कथा थिक’(२००३), डा. सुरेन्द्र लाभक ‘कथा यात्रा’(२००५) आ अयोध्यानाथ चौधरीक ‘एकटा हेराएल सम्बोधन ’(२००९), रमेश रंजन झाक ‘फूलवा हरण’ सेहो सूचीमे रहैक (मौन :२०७०) । मैथिली कथा संग्रह आ कथाकारक थप जानकारीक लेल तालिका देखूं । अहिमे सं किछुके मात्र अध्ययनक विषयवस्तु अइ आलेखमे बनाओल गेल अइछ ।
३.दूटा पोथीक समीक्षा :
कथा संग्रहके समीक्षाक लेल दूटा पोथीके समावेश कएल गेल अइछ । साहित्यकार एवं प्राज्ञ रामभरोस कापडि ‘भ्रमर’ के नवका कथा संग्रह ‘एंटीवायरस’ आ दोसर कथा संग्रह पूर्व प्राज्ञ रमेश रञ्जन झाक ‘फुलवा हरण’ के विषयवस्तुके समेटल गेल अइछ । ऐतह सभटा कथाक चर्चा नई कके प्रतिनिधि कथासभके शल्यक्रिया भेल अइछ ।
३.१. साहित्यकार रामभरोस ‘भ्रमर’ के कथा ‘एंटीवायरस’ :
भाषा, साहित्य, संस्कृति राष्ट्रके निधि होइछ । एकर उत्थानसं राष्ट्र उत्थानक झलकके अनुभूति होइछ (सुरेश हाचेकाली :२०७४) । समालोचनाक अर्थ सृर्जनाकृति (काव्य, गद्यसहित) के उपर सिद्धान्तपरक सृजनशील पठन होइछ । कियो स्वीकार करौंक वा नइ करौक, मुदा इ एकटा सत्य थिक–शाक्तिशाली समालोचकीय पद्धति स्थापित नइ होमेधरि सृजनात्मक लेखन आ पठन अपेक्षित उचाइ प्राप्त नइ कए सकैछ । एक दिसि हनुमान चालिसाक बिसैरजाइवाला स्तुतिगान आ दोसर दिसि अन्यायोचित क्षुद्र वाणीसं भरल निन्दापरक दुनू धारसं नेपाली साहित्यिक (ऐ.ऐ.) मे आन मातृभाषा (मैथिलीसहित) समालोचना मुक्तिक चाहना रखने अइछ । मैथिली साहित्यिक समालोचनामे त भावुकतामय स्तुति आ आवेशमय निन्दाक प्रवृति बेसी भेटैक छइ । मैथिलीमे सभसं पैघ दुर्भाग्य एहा छै । एक त कम साहित्यिक पोथीक प्रकाशन, ओहूमे सहि समालोचनाक अभावमे मैथिली पद्य आ गद्यसहितके आख्यान हक्कन कानि रहल अइछ । मैथिली साहित्य मुलतः जीवनीपरक, प्रभावपरक, विवरणात्मक आ सूत्रपरक प्राध्यापकीय शैलीके हतोत्साहित करैत आगा बढबाक आवश्यकता संगैह सिद्धान्तपरक समालोचनाक अपरिहार्यता आब भए चुकल अइछ । मिसले फुकोक संकथनक सिद्धान्त अनुसार राज्यव्यवस्था आ समाजव्यवस्था विभिन्न पात्रसभके वशिभूत बनाके कोनाक किछू गोटा अपन साम्राज्य मैथिली साहित्यमे कायम कएने छइ, तक्कर तित अनुभव ई स्तम्भकार सेहो कएने अइछ । एकरा तोडबाक अनिवार्य अइछ ।
वरिष्ठ साहित्यकार रामभरोस कापडि ‘भ्रमर’ के कथा संग्रह ‘एंटीवायरस’ मे सीमान्तकृत, किनाराकृत, अपहेलित, शोषित, अभिसप्त, सबाल्टर्न, मुहदूबरा आ सुधा लोकैनके विषयवस्तु भेटैछ । ई भ्रमरके तिसरका कथासंग अइछ । नेपालीय मैथिली भाषी क्षेत्रमे सभसं बेसी पोथी निकालैवाला व्यक्तित्व ओहे छैथ । एक संवादमे ओ कहने छलाह, ‘सडचालिसटासं बेसी पोथी प्रकाशित अइछ ।’ ओहिमेसं ‘एंटीवायरस’ एकगोटा अइछ । मैथिलीमे राज्यद्वारा पेलैवाला प्रवृति अखनो अइछे । भ्रमरक साहित्यमे ओइ प्रवृतिके फराक शैलीले विरोध भाव देखल जाइछ । ताहिना मैथिलीक किछु लेखकक सामन्ती संस्कारवाला प्रतिनिधि पात्र आ शैली हुनकर लेखनीमे कम भेटैछ । एकर पुष्टि डा. मेघन प्रसादक ‘मैथिली कथा–कोष’ सेहो करैत अइछ । मैथिली भाषाक कथासभमे सामन्तवाद आ ग्रामीण मुखियावादक अवशेषसभ अखनो देखमामे अबैते अइछ । आब अइ तरहे मानसिकताक विरोध सेहो होमे लागल अइछ । ‘एंटीवायरस’ अइ आलोकमे नया“ स्वादसहित एकटा प्रतिनिधिमूलक उदाहरण भए सकैत अइछ । अइ पोथीक कथासभमे एकटा कथाकारक मार्मिकता आ हार्दिकता स्पष्ट रुपसं अनुभव होइछ । अध्ययनक क्रममे मिथिलाक बहुत कथाकारक प्रस्तुति हेतुवाद (रेसनलिज्म) आ व्यक्तिगत बहुलठपन (इन्डिभिजूए इंस्यानिटी) देखमामे अबैत अइछ । ओकरा तोडबामे ‘एंटीवायरस’ सफल भेल बुझाइछ । अई कथा संग्रहकक नाममे लिखल गेल ‘एंटीवायरस’ मे घरनीसं पीडित पतिक पीडा आ बेदनाके मार्मिक ढंगसं प्रस्तुत कएल गेलछ । कथामे काम करैवाला लोक नइ राखब, राखबो करब त शंका–उपशंका करब, अपनेसं कएलापर समय बहुत खर्च कएनिहार महिला पात्रक चरित्र गजब शैलीमे उजागर कएल गेलछ । भान्साघरक आबाज आ कम्प्युटरपर बैसैयवाला पतिके घरनीक रोषसं थकान मेटेबाक प्रयासमे अपन पीडाक डिलिट करैत अपने धूनमे मग्न रहैक बात बेजोड रुपसं आएलछ । कथा पढैवालाके थकान सेहो दूर होमाक सुखानूभूति भए सकैतछ ।
अई पोथीक दोसर कथाक विषय ‘आइ.सि.यू.’ के बनाओल गेलछ । अइमे एकगोटा बिमार लोकसं भेट करैक लेल पहुंचयवाला आफन्तजन आ नर्सबीचके संवादमे रोचकता अइछ । लेखक बिमार भैयाप्रतिक अनुजक छटपटाहट कून तरहे होइत छैक, तकरा अदूभूत बड्ड मार्मिक शैलीमे चित्रण कएने छैथ, कथामे । बुझाइछ, घटना अपने आइख आगा भए रहलैए । पाठकके स्तब्ध आ आतूर बनेबाक सामग्री अइमे पसरल–पडल अइछ । मुदा कथामे एकैहबेर आबैयवाला पात्रसभ ‘लखना’, ‘नारायणजी’....कथाक अ–रसगर बना दैत छैक । संक्षेपमे अइ तरहे पात्रक परिचय खडकैत अइछ । कथाकार कियैक ओकरासभहक परिचय खोजबाक जिम्मा पाठकके देने छैथ ? ई पाठकक लेल अन्याय भेल अइछ । जे जेना, अइ कथामे बिमार पात्रके विगत परिछाबैत कथाकार अपन शालिनता जइ तरहे चित्रण कएने छैथ, ओ खूद भावुक त बनले छैथ, पाठकके सेहो भावुक बना दैत छैथ । कथाकार अपन भैयाक विगत सम्झैत भावविह्ल होइछ आ आईसियूसं निकैलके हरियर गाउन कांटीमे टाङ्गलाक बाद हलका महशुस कएल गेल भाव प्रकट कएने छैथ । अन्त्यमे पहुंचैत–पहुंचैत ‘मोन कतेक हल्लुक होइत अइछ, चेम्बरसं बहरा जाइत छी’ वाक्य कथाकारक कृर्तिम भाव प्रकट भेल महशुस होइछ । ओतेह आइसियुसं निकललाक बाद भावुक वा मोन भारी होमाक भाव एमाक चाहि । ‘अमृत पान’ कथा मौलिक अइछ , प्रस्तुति अद्वितीय । अई कथामे बेटीके ‘पटनावाली’ कहल गेल अइछ । अइ प्रस्तुतिमे रोचकतासंगै पाठकके जिज्ञासु बनेबाक प्रयास भेल अइछ । अईसं पुरे कथा पढबाक चाहना होइछ । अई तरहे प्रस्तुति कथाक ‘गुरुत्वाकर्षण’ बढा दैत छै । मुदा कथा समुचा पढलाक बादो ‘पटनावाली’ बेटीक नाम नई भेटैक छै, नाम देलासं कथाका प्रसांगिकता अउर बैढ जाइछ । अईमे मधेस आन्दोलनक बात सेहो पडल अइछ । बन्दीक कारण मैथिली संस्कृति आ परम्परागत पर्व तिलासंक्रान्तीमे पडल प्रभावपर निक शैलीमे पढबामे मिलैत छै । बेटीके संक्रान्तिमे चुरा, तिल, मुरहीक लाय नइ पहुंचा सकल विषय जन–जनके हियाके हिला दैवाला छैक । कथामे मधेस आन्दोलनक चर्च होइते कथाकार बेसी भावुक बनल अनुभव होइछ । अइसं विषयान्तर भेल महशुस सेहो होइछ । चायवाला आ ग्राहकके संवादसंगैह मैथिली संस्कृतिसं जुडल विषय कथामे प्राण भइर दैछ । शुरुमे तिला संक्रान्तिमे तिल–गुड खेबाक संस्कृतिके कोनाक बढैत सहरीकरणसं अतिक्रमित भए रहल अइछ, तक्कर शानदार प्रस्तुति अप्पन गुरुत्ववलके कायम रखमामे सफल अइछ, कथा ।
कथासंग्रहमे मौलिकताक स्वाद बेर–बेर चखबाक अवसर भेटैछ । पात्रसभहक चयन सेहो निक जकां कएल गेल अइछ । पोथीमे बीसटा कथा समेटल गेल अइछ । सभटा समयसान्दर्भिकतासं भरल–पुरल अइछ । पोथीमे समटल गेल कथासभ शीर्षक अनूकूल त अइछे, कथाक शब्द सीमाके सेहो निक जका पालना कएल गेल अइछ ।
‘द्वितीय श्रेणीक एकटा डिब्बा’, ‘क्वार्टन नं. एफ–तीन’, ‘पराकम्पन’, ‘परिवर्तन’ ,‘मुनियां टी स्टल’, ‘अन्न–धन लक्ष्मी’, ‘गंगाप्रसादक स्वायत्तता’, ‘प्रतीक्षामे’, ‘दहेज’, ‘उडान’, ‘आ आब होरी आबि गेलै’, इजोरिया रातुक सपना’, अन्ततः, ‘भेलेन्टाइन डे आ गुलाब’, ‘मर्निग वाक’, ‘सीमापरक भूत’ आ ‘सपना’ कालजयी कथावस्तुसभ अइछ (भ्रमर :२०१९) । कहियो पुरान नई होमेवाला विषयवस्तुक उठान भ्रमर कथासंग्रहमे कएने छैथ । अइमे सं वैदेशिक रोजगारीक विकृतिपर लिखल ‘अन्न–धन लक्ष्मी’ समस्या आ समाधान दूनूके साथ परोसल गेल अइछ । कतेको साहित्यकारक कथासभ खासकके नवसिखुवासभ पाठकके सन्देश दइसं पहिने अपन लेखनीके गला दबा दैत छैथ । ओहूना समस्या आ समाधान संगसंगै एनाई कथाक विशेषता होइछ, एकरा निक पक्ष मानल गेल छइ । ‘अन्न–धन–लक्ष्मी’ एकर निक उदाहरण भए सकैत अइछ । अइ कथाक नेपाली अनुवाद कान्तिपुर दैनिकमे सेहो प्रकाशित भए चुकल अइछ । ‘एंटीवायरस’ मे फराक–फराक शीर्षकमे फराक–फराक स्वाद मिलैत अइछ । ‘उडान’ कथाक संवाद रोचक अइछ । जन–जनसं जुडल यथार्थपरक विषयवस्तु अई कथासंग्रहके प्राण थिक, बेर–बेर पढबाक लेल ककरो मोन ललाइत भए सकैत अइछ । भ्रमरक नूतन अइ कथासंग्रहक कमजोरी जे ई जनबोली नइ बैन सकल । संस्कृतिभाषा जका जन–जनके जिभसं उच्चारण करैमे कठीन होमवाला दरभंगिया आ मधुवनीक संभ्रान्त आ मानक मैथिलीक (जे अखन निर्धारण नइ भेल अइछ) शैली प्रयोग कतहू–कतहू कएल गेल अइछ । भाषाक शैली जनजिभहक बोली आ सरल भाषिका होमेके चाहि, कथाकार अईमे चुइक गेलाह से अनुभव होइत अइछ ।
३.२. रमेश रंजनक कथासंग्रह ‘फुलवा हरण’ :
साहित्यकार रमेश रंजन झाके कथा संग्रह ‘फुलवा हरण’ मे १८ टा कथा समावेश अइछ । अईसं पहिने २०६७ मे रंजन आ अशोक दत्तके संयुक्त संपादनमे ‘कथा यात्रा’ प्रकाशित छैन । ‘फुलवा हरण’ रमेशक पहिल कथासंग्रह अइछ (जनकपुरी :२०७५) । एकर समीक्षा कान्तिपुरमे प्रकाशित अइछ । बादमे अई पोथीक प्रति–समीक्षा सेहो कान्तिपुरमे प्रकाशित भेल छल । ‘फुलवा हरण’ विशुद्ध मिथक आ कल्पनामे आधारित अइछ । कथा संग्रहमे जातिय विभेद, ब्राह्मणवादी आडम्बरक विषय नगन्य रुपमे उठाओल गेलछ । मिथिला क्षेत्रमे कथित उच्च जातिवालासभ जई तरहे भ्रामक आ काल्पनिक कथासभह लिखके खास जातिविशेषक देवतुल्य बनाओल गेल कथासभ बड बेसी लिखत पोथीसभमे भेटैत छै । ठीक तहिने भ्रामक शब्दजालसभ अई पोथीमे पडल अइछ । शायद ‘सामाजिक कथा’क कारण मात्र , लेखक फराक शैलीमे प्रस्तुत् भेल अनुभूति होइत अइछ । कथा संग्रह मैथिली भाषी क्षेत्रमे जकडल मनुवादी संस्कृतिक विषयमे मौन अइछ । अईमे लोकक वाध्यता, विवशता आ मजबुरीक बात त पडल छैक , मुदा ओ सभटा बिकाउ आ लेखकके आत्मरतिक उद्देश्यसं मात्र । वाध्यतामें पडल लोकसभहक समस्या समाधानक उपायबारे कुनू कथा नइ बाजैत छै । पोथीक अधिकांश कथा पढलाक बाद अई निस्कर्षमे पहुंचमे किनको दिक्कत नई होइत आ होमाक चाही । कुनूमे निस्कर्ष निकालैयके प्रयासो कएल जाए वा बलजोरी कएलाक बादो ‘नकारात्मक’ भाव मात्र अबैत अइछ । पोथी मैथिली आ मिथिला परिवेशमे लिखल गेल अइछ, ताहिलेल ई समुच्चा तराई–मधेसक प्रतिनिधित्व नई कए सकल अइछ । कथाकार कथित ‘अछूत’ जातिक बारेमे त लिखने छैथ, मुदा पोथीक भाषा÷शैली कथित ‘मानक जाति’ वाला छैक । ग्राम्य परिवेश त फगत कथाकारक हाथिक दांत जका देखार भेल अइछ । धनुषाक इर्दगिर्द मात्र कथासभ चक्कर काटि रहल छैक । विविधता खडकैत अइछ । कथाक बहुत जगह प्रयोग भेल शब्दाबली सामान्य मैथिलीजनके बुझाईसं दूर आ ओकरासभके द्वारा उच्चारण करै जोकरक नई छै । रंजनक कथा संग्रहमे ‘शिल्पी समुदाय’क श्रमके विषय जोडदार रुपमे उठान भेल अइछ । मुदा ओकरासभहक विकृति मात्र उजागर कएल गेल अइछ । एक्कर उदाहरण ‘बघवा’ भए सकैत अइछ । ‘चोरी/डकैती’ करैवाला समुदाय कहैके ‘बघवा’क कथामे अमुक जातिके निचा देखेमाक जंका चित्रण भेल अइछ । एकरा ऐनाके कहि सकैत छी जे ओई जातिके ‘पेशा’ कुनू न कुनू रुपसं अपव्याख्या कएल गेल महशुस होइछ, जे पैघ दुर्भाग्य थिक । दादा–पुर्खासं विगतमे भेल गलत क्रियाकलापक उजागर कके ओइ जातिक नवतुरिया÷पीढिके दोषी समुदायक सदस्य बनेबाक फेरमे कथाकार रहल बुझाइत अइछ (यादवः२०७५)
‘चायवाली’ कथाक पात्र नाटक आ चलचित्रमे मात्र संभव भए सकैत अइछ , वास्तविक जीवनमे ई दुर्लभ घटना थिक । अई कथामे ‘बहुविवाह’ के प्रश्रय देमेवाला प्रस्तुति बुझाइत अइछ । कथामे उल्लेखित सामाजिक पक्ष एकटा भए सकैत अइछ मुदा कथाकार जई रुपसं प्रस्तुत भेलाह अइछ ओ बेमेल अइछ । टिबी सरुवा रोग अइछ, घरवालाक निधन कहल गेल अइछ । मुदा पोथीमे क्षयरोगके सरुवा रोग कहि सामान्य रुपमे बुझमामे दिक्कत होइत छै । क्षयरोगी घरवालाक सद्गतिक बाद ओकर प्रेमिका सौतिनके अपने संगैह रखबाक बात उल्लेख छैक । इ कथाक सकारात्मक पक्ष होइतोहू ‘सरुवा रोग’ प्रति सचेतना आ ‘बहुविवाह’के निरुत्साहित करबाक भाव कथामे अभाव अइछ । पोथीमे ‘यात्रा’ आ ‘बदनाम सहर’ मिथिलामे असान्दर्भिक अइछ । अईमे गलत प्रयोग कथाकार कएने छैथ । गर्भवती अवस्थामे विदेश गेल घरवालाके अस्वीकार करैवाली पात्र ‘दौना’ के स्वाभिमानी कहल गेल अइछ । मुदा घरवालाके विवशतापर कथा चुप्प अइछ ।
रंजन सातम् कृर्ति लिखलाक बादो अई पुस्तकमे ओ अपनाके परिपक्व नई देखा रहल छैथ । गामक पृष्ठभूमिमे लिखल १३ टा कथा समग्र मैथिली भाषी क्षेत्रक ग्राम्य परिवेशके नई समेट सकल अइछ । पोथीमे १८ टा कथा अइछ । अधिकांशमे ‘जनकपुर माने मिथिला आ मिथिला माने जनकपुर’ शैलीमे कथाकार प्रस्तुत भेल छैथ । पोथीमे निचा देखबैवाला भाषा शैली बहुत पडल छैक । ‘फुलवा’ अपनेमे एकगोटा निचा देखाबैवाला शब्द थिक । अपनासं छोटके नामक आगा मिथिलामे ‘वा’ जोइड देनाई पुराने चलन अइछ । मुदा सम्भ्रान्त आ कुलिन जातिमे ‘वा’ प्रत्यय जोडबाक चलन नइ भेटैत छैक । कथित उच्च जाति आ मालिकसभ गरिब मजदुरसभहकलेल ई शब्दक प्रयोग बेसी करैत छैक । कथाकार पोथीमे ‘मालिक जाति’ के रुपमे प्रस्तुत भेल दुखद अनुभूति पाठक लोकैनके भए सकैत अइछ । ‘बघवा’क ‘वा’ ओहि रुपसं पोथीमे परल निस्कर्ष निकालल जा सकैत अइछ । कथाकार वामपन्थी मुदा शब्दक चयन ‘सामन्ती’ जकांं आएलछ । पुस्तकमे समावेश कएल गेल सामन्त ‘महेश्वरबाबु’ वा ‘मकसुदनबाबु’ नेताक रुपमे छइ । ओसभ गल्ति कएलाक बादो ‘बाबु’ बनल छैथ, मुदा श्रम कके पेट भरैवालाके ‘फुलवा’ बनाओल गेल अइछ । पोथीमे सामन्त शब्द उल्लेख कएलाक बाद कि ‘बाबु’ लिखैह पडत ? तहिना पोथीमे उल्लेखित शब्दाबलीसभ कन्जुश बाबु, चोरी÷डकैती, अपहरण.... विकृति आ विसंगति मात्र मैथिली भाषी क्षेत्रमे नई छै , सकारात्मकताक गहिर पकड कथाकारक प्रस्तुतिमे नइ देखल गेल अइछ ।
४.मैथिली भाषी साहित्यकारक नेपालीमे कथा
मैथिली भाषीक भाव नेपाली कथामे कोई रुपसं पडल अइछ, से अध्ययन करबाक लेल डा.धीरेन्द्रक कथा ‘ठूलो माछा र स्यानो माछा’ आ डा.राजेन्द्र विमलक ‘एंजेरु’ के विषयवस्तु बनाओल गेलछ .
४.१. डा.धीरन्द्रके कथा ‘ठूलो माछा र स्यानो माछा’
मैथिलीक कथाकार डा. धीरेन्द्रके बहुत कथासभ पढ्ने छी । एतह ‘तराई–मधेसका कथा’ मेसं हुनकर ई कथा लेल गेल अइछ । नेपाली भाषामे मैथिली भाषी कथाकारक प्रस्तुति कून रुपसं होइत छैक, सेहो देखाबाक उद्देश्यसं एकरा छनौट कएल गेल अइछ । सबसं पहिने कहि दि जे नेपाली भाषामे डा. धीरेन्द्रक प्रस्तुति कमजोर अइछ । यदि अनुवाद छी त जबरदस्ती अनुवाद कएल गेल छैक । अई कथामे कथाकार धनकाहा गरिबहापर शोषण करैवाला पुराने बात लिखने छैथ । हां, कथाकार मिथिलाक सामान्य ग्रामीण बजारक परिवेशमे जरुर प्रस्तुत् भेल अइछ (प्रधान आ तिवारी ः२०६७) । कथामे शिक्षक पात्रके मार्मिक रुपसं परोसल गेल अइछ । चरवाहाक संवाद गजब छै । बिना परिचयके ‘बिहारीलाल’ पात्र कथामे एकैहबेर टपैक गेल अइछ । पाठकक भवनाके ओकरा चिन्हित करैमे कठीन काज भए सकैत अइछ । मुदा ओकरासाथ दोहा जोडलाक कारण ओ ‘दोहाकार’ भए सकला अनुमान त कैइए सकैत छी । सामन्ती आ दबंगके रुपमे प्रकट कराओल गेल ‘बिरजूबाबू’ के ‘बनसीवाला’पर दमन रोचकताक साथ पाठकके दयाभाव जगेबाक काज कएने छैक । कथामे ‘बिरजूबाबू’ प्रति आक्रोशित आ घृणा भाव त अनाहक आइब जाइछ । तहिना, ‘बनसीवाला’के ई सल्लाह ‘ककरो जमिन नई भेल जगहमे बनसी रखबाक सल्लाह’ असंभव होइतो ओतेह कथाकार द्वारा अक्सिजनक काज कएने बुझाइछ । धीरेन्द्रक कथामे पदसोपानक संज्ञान नइ राखल गेल बात कतहू–कतहू देखमामे अबैत छैक ।
४.२. डा.विमलक कथा ‘एंजेरु’ के भाव :
साहित्यकार डा. राजेन्द्र विमलक अधिकांश कथासभमे भावुकताक प्रधानता बड बेसी रहैत छै । हुनक अई तरहे प्रस्तुति कहियोकाल एकांकी जकां बुइझ पडैत छै । कथामे लयात्मकता हुनक मौलिकता छैन । मुदा ओ अपन कथामे ऐतेक ने लय दए दैत छैन जे विषयान्तर भेल अनुभूति पाठकके होमे लागैछ । तहिना अप्पन मोनपसिन नई भेनिहार पात्रप्रति हुनकर आक्रोश कथामे असानिसं बुझामे आइब जाइछ । कियैक त कथामे ‘शत्रु पात्र’ के लेल प्रस्तुत् कयल गेल हुनक विश्लेषण कडा आ बाण सनक रहैत छैक । ऐतह हुनकर एकगोटा कथाक निर्मम समीक्षा करबाक प्रयास कएल गेल अइछ । डा.विमलक कथा ‘एंजेरु’ के ऐतह विषयवस्तु बनाओल गेल छैक । समकालीन पहाडी आ मधेसी भावनासं विकसित भेल संकटकालीन स्थितिके प्रतीकात्मक रुपमे लिखल कथा अइछ ई । मधेससं बसाई सरैक’ पहाडि समुदायक वाध्यताक विषयवस्तु कथामे समेटल गेल अइछ (मधुपर्क :२०६५) । डा.विमल कथाक शुरुआत आङनमे खेल रहल वाल पात्रके सजीव चित्रण कएने छैथ । अपने संगीक बेटीके अप्पने मानैत जई रुपसं ओ कथामे प्रस्तुत भेल छैथ, हियाके झकझोइरके राईख दैत छैक । संगीक बेटीसंग कथाकारक आत्मियता सचमुख लयात्मक अइछ, बेर–बेर पढबाक वाध्यताक सृर्जना कथामे कएने छैथ । अपन शौखके सार्वजनिक करैत ओ बारीसं फुलबारीधरि पहुंच जाइत छैथ । ऐतह, वास्तविकताक धरातलीय ई अउर निक सांकेतिक प्रस्तुति बैन सकैत छल । पदसोपानक कारण अइ तरहे अनुभूति देमामे कतहू कतहू पाठकके निराश होमे पडैत छैक । कल्पिता आ वीणाक कथा बेजोड छैक । कथामे संवादक क्रममे एक जगह १२ वर्षके बालिका कल्पिताक मूंहसं ‘मुद्दा देबाक बात’ कहबेनाई कनिक बेसी बुझाइछ । वालमनोविज्ञानमे अई तरहे बात बहुत कम देखमामे अबैत अइछ । कि जनकपुर अई तरहे वालमनोविज्ञानस्तरमे पहुंच गेल अइछ ? अई तरहे प्रश्न सेहो पाठकक मोनमे उईठ सकैत अइछ । कथामे एक जगह ‘जाइसं पहिने..’ वाला वाक्य एकाएक आईब गेल छैक, ई कथा पढैवालाके ‘पाइभ–डब्लूएच’ मे रिंगरिंगा देमेवाला छैक । कल्पिताद्वारा ‘एंजेरु’ (परजीवि वनस्पति) उखाईड फेकबाक वाक्यक वाद एकैहबेर मधेसवादी दलक बात शुरु कयल गेलछ । पदसोपान एतहू खडकैत अइछ । कथाक शुरु–शुरुके प्रस्तुति सौम्यता, सरलता, सहजता आ सुगमतायुक्त छैक । ‘मधेसी’ शब्द आइबेते कथाकार ‘एक्टिभिष्ट’ बैन जाइत छैथ । तें ओ मधेसवादी दलसभके ‘कुकुरमुत्ता जका जन्मल’ लिख देने छैथ । मधेसिया दलप्रति हुनकर आक्रोश जाएज भए सकैत अइछ, मुदा पाठकके अपने जकां बनेबाक कथाकारक प्रयास अनुचित अइछ । कथामे एकगोटा पात्र प्रभू सेहो छैथ । कथामे प्रभू अवस्था एकगोटा बिमार जकां आएल अइछ, मुदा पानी पिएलाक बाद ‘आश्वस्त’ शब्द आएल अइछ । इ ऐतह कनिक बेमेल बुझाइछ । ऐतह ‘आराम’ शब्द उपयुक्त छैक । कथामे मधेसीके ‘मायावी राक्षस’ के पात्रक रुपमे प्रस्तुत कएल गेल अइछ । सपनामे समेत कथाकार मधेसीयाके ‘दानव’ के रुपमे देख रहल छैथ । तें प्रभूक सपनामे सेहो ओही मानसिकताक रुपमे प्रकट भेल अइछ । ‘एंजेरु’ मधेसमे द्वन्द्व चर्कल समयमे आ ओकर बादक असरबारेमे बुनल गेल कथावस्तुमे मार्मिकता रहितहू अन्तरगोत्वा ई पहाडी आ मधेसीया’क बीचमे दूरी बढेबाक दिसि उन्मुख अइछ । कथाकारक ध्येय द्वन्द्व समाधानक लेल मध्यस्थकर्ताक होमाक चाहि, मुदा से नई भएके दुई समुदायबीच मनोमालिन्यतामे बृद्धि करबाक मनसाय बुझाइछ । सपना, सपना होइछ, मुदा सपनाक विषयवस्तुक विपना जकां पेश केनाई गलत अइछ । वषौंधरि संगैह बैसल/रहैवाला दू समुदायबीच कुनू बहानामे द्वन्द्व आ दूरी बढेबाक बात नई होमाक चाहि । कथाकार अई कथामे एकांकी देखार भेल अइछ । सत्ताजातिप्रति जे भाव कथामे पात्रक माध्यमसं प्रस्तुत भेल अइछ ओ एक समुदायके दोसर समुदायप्रति विषवमनक कारक/कारण बैन सकैत छै, से बात कथाकार बिसैइर गेल जका बुझाइत अइछ । कथामे सर्वस्वीकार्य भाव अनिवार्य मानल जाइत छैक । डा.विमलक ई प्रतिनिधि कथामे एक कोणीय (युनि–एंगुलर) शैली देखल गेल अइछ । तें कथाक अन्तमे सेहो मधेसीया’क परजीविक उपमा देल गेल अइछ ।
५. किछू आर कथाकार आ कथा संग्रह
नेपालीय मैथिली भाषी क्षेत्रमे कथा संग्रह प्रकाशित करैनिहार कथाकारसभ बड कम रहल बात अनुसन्धानके क्रममे देखमामे आएलछ । एहि क्षेत्रमे कथापर समालोचनात्क आ अनुसन्धनाकपक कृतिसभ सेहो कम अइछ । जे अइछ, सभटा सरकारी टका पर मात्र भेल भेटैत अइछ । स्वतन्त्र अध्ययनक अभाव खटकैत अइछ । साहित्यिक फांटमे आधुनिक मैथिली कथासभ मैथिलीमे कम आ नेपाली भाषाक कथा संग्रहसभमे बेसि देखल गेलछ । एहि कोटीक कथाक सूचि सेहो लम्बा नई अइछ । सूचीमे भूवनेश्वर पाध्याय (चोइटिएका रहरहरु), राना सुधाकर (चन्द्र ढक खिलिएको छ), वृषेशचन्द्र लाल (ढुंगा जस्तो मान्छे), देवेन्द्र मिश्र (कथा भ्रूण), राजारामसिंह राठौड (खुन), धर्मेन्द्र विह्वल (घेराबाट), श्यामसुन्दर शशी (संकल्प), विनित ठाकुर (विहे), विजेता चौधरी (छाता) सहितके छैथ । मैथिलीमे संपादित कथासंग्रह गोटेआधे भेटैत अइछ । ओइमे डा. धीरेन्द्रके ‘नेपालक प्रतिनिधि कथा’, डा.सुरेन्द्र लाभक ‘नेपालीय मैथिलीक उत्कृष्ट कथा’ आ रमेश रञ्जन झा आ अशोक दत्तके संयुक्त संपादनमे ‘कथायात्रा’ अइछ । मैथिलीक नव कथाकारक रुपमे सुजितकुमार झा देखारमे आएल अइछ । मुदा हुनक कथाक सरकारी वा नीजिस्तरमे सेहो ग्रन्थीकरण कएल गेल नइ भेटैत छैक । २०१६ मे हुनकर ‘बुलबुल’ कथासंग्रह सार्वजनिक भेल छल । सुजितक पांच गोट कथा संग्रह भेल दाबी ‘बुलबुल’के कभरके अन्तिम पृष्ठमे कएल अइछ (झा, सुजित : २०१६) । नेपालक अनलाइनसभमे हुनकर आन कथा संग्रहमे ‘चिडै’, ‘गन्ध’, ‘जिद्दी’ , ‘कोइली घुरि आउ’ आ ‘खजुरीवाली’
| विभिन्न संचार माध्यम तथा लेखकसंग प्रत्यक्ष वार्ता |
रहल उल्लेख अइछ । युवा कथाकार सुजितसंग संवादमे अपन ई सभटा कथासंग्रह प्रकाशित भेल पुष्टि करैत एकटा अउर कथासंग्रह ‘तितलीसंग दोस’ नाम लिखेलैथ । हुनकर कथासंग्रह ‘बुलबुल’ पर डा. सुरेन्द्र लाभक टिप्पणी छैन, ‘संग्रहक खास विशेषता–सरल भाषा, कथाका आकार उपयुक्त,महिला अधिकारक वकालत, सामाजिक विडम्वनापर चोट, सन्देशमूलक, रुचिगर, पठनिय एवं संग्रहणीय’ (मैथिली जिन्दावाद) । जे जेना, पोथीक सर्वसुलभ उपलब्धता नइ भेलासं पाठकगणके ई स्तम्भकार अपन टिप्पणी देमामे असमर्थ भेल अइछ । तहिना २०७० मे दूगोट मैथिली कथासंग्रह आएल छल । ओइमे प्राध्यापक परमेश्वर कापडिक कथा संग्रह ‘पथार’ आ डा. रेवती रमण लालक कथा संग्रह ‘हाथक रेखा’ सार्वजनिक भेल छल (तालिका देखु) । पत्रकारितामे समेत ओतबे दखल रखैवाला कथाकार सुजित झाके अनुसार संचारकर्मी श्यामसुन्दर शशिके ‘भुकना महात्म्य’ कथा संग्रह सेहो प्रकाशित भेल अइछ ।
६. फराक धारक मैथिली कथाकार:
नेपालीय मैथिली कथाकार, खास ककें ब्राह्मणेत्तर आ कायस्थेत्तरमे रामभरोस कापडि ‘भ्रमर’, परमेश्वर कापडि, योगेन्द्रप्रसाद साह ‘नेपाली’, श्यामसुन्दर कापडि ‘शशि’ सहित छैथ (मैथिली कथा–कोष : १९९६) । मैथिली कथा–कोषमे ‘भ्रमर’क एकटा कथाक समिक्षा पाजापारक विद्वान लोकैन अई पोथीमे सेहो कएने छैन । हुनकर कथा ‘तोरा संगे जयबौ रे कुजबा’ के निर्मम समालोचलना डा.मेघन प्रसादसहितके विद्वान द्वारा भेल अइछ । मैथिली कथा–कोषमे भ्रमर’क कथासारमे लिखल अइछ :–
‘...कथानायक कुमार अपन गाममे खेतक आडिपर बैसल अपन अतीतक प्रेमकथाके स्मरण करैत अइछ । जनकपुरमे रहैत लक्ष्मीसं सिनेह बढैत छैक । लक्ष्मी कुमारकें अपन प्रेमी मानि लेने छैक, जखन कि कुमारकें गाममे परिवार छैक, जाल–जंजाल छैक, सामाजिक प्रतिष्ठा छैक । ओ लक्ष्मीकें बुझबैत अइछ । जे ओकरा संगे रहलापर कष्ट होयतैक । किन्तु लक्ष्मी नायकक संगे जयबाक लेल जिद्द ठानि दैत छैक । समय अयलापर संग लए जएबाक बात कहि नायक ओकरा टारि दैत छैक । किन्तु गाम अयलापर ओकर निश्छल प्रेमक स्मरण कचौटैत छैक । कतेको दिन धरि दुनूमे पत्रोत्तर चलैत रहैत छैक । किन्तु कुमार अकछा कए पत्रोत्तर देब बन्न कए दैत छैक ई बूझि जे नारी पुरुषकें बरोबरि मूर्ख बनबैत रहलि अइछ । एकटा आकर्षक झूठ ..’(प्रसाद :१९८६) ।
भ्रमरक कथा ग्रामीण ठेठ भाषाक प्रयोग ललितगर रहल बात कहैत कव्य उप–शीर्षकमे ओइ पोथीमे आगा लिखल गेल अइछ :–
‘इ एकगोटा असफल प्रेम कथा थिक । कथाक नायकक निश्छल सिनेह ओ नायिकाक निश्छल प्रेम, किन्तु सामाजिक प्रतिष्ठा ओ मर्यादा मे जीबाक लालसाक कारणें प्रेमक बंधनमे नइ बान्हल जयबाक नायकक विवशता छैन । ’
मैथिली कथा–कोषमे भ्रमरक’ कथा ‘तोरा संगे जयबौ रे कुजबा’ के आलोचनात्मक टिप्पणीमे डा.रमानन्द झा ‘रमण’, श्री चन्द्रेस, श्री वीरेन्द्र झा आ मोहन भारद्वाजकके कथन समेटल अइछ । पोथीमे लिखल अइछ ः–
‘.....विभिन्न जाति ओ वर्गक पात्रक समावेश सर्वश्री डा.धीरेन्द्र, रामदेव झा,रमानन्द रेणु आदि कथाकारलोकनिक कथामे देखल जाइत अइछ, किन्तु ओकर यथार्थ चरित्र जाहि तरहें श्री सुभाषचन्द्र यादव ओ श्री रामभरोस कापडि ‘भ्रमर’क कथामे उभरिके आएल अइछ तेना भकें प्रायः हुनकालोकनिक कथामे नहि आबि सकल अइछ । कतहु ने कतहु कथामे ओहि वर्गक चरित्रक बनौआपनक आभास साकांक्ष पाठककें भइये जाइत छैक’ (प्रसाद)।
‘...भ्रमरक कथाक अध्ययन सर्वप्रथम इएह घोषित करैत अइछ जे हिनक अधिकांश कथा प्रायः एकहि क्षेत्रसं अपन रक्तमज्जा प्राप्त करैत अइछ ।कहि सकैत छी जे ओ एकहि संस्कृतिक प्रतिफल थिक । एकहि रचनात्मक मानसिकताक अभिव्यक्ति थिक । आ ओ थिक नाररी देहक चारुकात चकभाऊर देब । एहि चकभाऊरमे नारीक शोषण, नारीपर अत्याचार, नारीक संघर्षकशीलता, नारीक अशिक्षा, नारीक आशा–आकांक्षा, नारीक पारिवारिक–सामाजिक दायित्व नहि भेटैत अइछ । आ जं भेटितो अइछ तं क्षीण अवस्थामे । कथाक ओ उपजीव्य नहि रहैत अइछ । रहैत अइछ नार िआ पुरुषक देहगाथा । नारीकें पुरुष फंसबैत अइछ । हरि परीबला ठारिपर उडि जाइत अइछ । जैविक विवशताक रुपमे ओकर कामभूख वर्णित नहि भए अर्थोपार्जनक साधनक रुपमे समक्ष अबैत अइछ । किछु कथामे ओकरा विवश कयल जाइत छैक । किछु कथामे दैहिक सम्पर्क स्थापित होयबासं पूर्वहि समाप्त भए जाइत अइछ, किन्तु नायकक आंखिमे एक जोडा आंखि नतैत रहैत छैक । ‘तोरा संगे जयबौ रे कुजबा’ आदि कथा एहि मूल गोत्रक अइछ ।...’(झा, डा.रमानन्द :१९९६)
पोथीमे समिक्षा करैत लिखल गेल अइछ–‘शीर्षक कथा ‘तोरा संगे जयबौ कुजबा’ मे यथार्थक जटिलता आ मानवीय संवेदनाक आत्मसंघर्षक रचनात्मक संयोजन, जीवनक यथार्थक सफलीभूत परिवेशक संङ माटि–पानिक सोन्हाआल गंध, मानव मनक व्यथा कथामे सहज गुप्त भावनाकें विशेष अनुभूति द्वारा सामाजिक नग्न सत्यक मर्ममे लोक जीवनक विवशताक बन्धनमे द्वन्द्व, संशय, आत्मिक, मन आदिक छटपटाहटिकें सहज ढंगे व्यक्त कयल गेल अइछ । कथाक गति भावावेश आ तीव्र प्रवाही अइछ । सौन्दर्य आ प्रेमक प्रतीक रुपमे ‘कुमार’क अन्तस्थलमे हाहाकार मचबैत ‘लक्ष्मी’क सौन्र्यानुभूतिमे आत्मीय स्वरक स्निग्ध धार प्रस्फुटिक होइछ’ (चन्द्रेश :१९९६) ।
भ्रमरके कथाक समीक्षा मे पोथीमे आगा कहल गेल अइछ – ‘तोरा संगे जयबौ रे कुजबा’ भ्रमरक भावनासं परिपूर्ण कथा अइछ जकर भाषा–शैली प्रगतिशील अइछ संगहि ठेठ शब्द आ ग्राम्य जीवनक यथार्थ चित्र कथाक महत्ताके आर बढा दैत अइछ । स्त्री–प्रेमक झूठ आकर्षणक हंसी उडौलनि अइछ भ्रमरजी । प्रेमक विश्वासक आडिमे पतिकें कोना धोखा दए स्त्री ओकर ने घरक रहैत अइछ आ ने घाटक तकर प्रतीक अइछ चलितरा सन जन । ओकर पत्नी अपन पतिक मर्यादा बढयबाक बदला कलंकक टीका लगा अपन मुँह कारीखसं पोति चलितराक माथ झुका दैत छैक’ (झा, वीरेन्द्र :१९९६) । भ्रमरक पोथीके बारेमे अइ तरहे सेहो लिखल गेल अइछ–‘भावक आ मांसल प्रेमकें लके कथा लिखबाक परपाटी बड्ड पुरान अइछ, मुदा एहनो कथापर समयक प्रभाव पडलैक अइछ । ई समयक अन्तरालक प्रभाव थिक जे रामभरोस कापडिक ‘तोरा संगैह जयबौ रे कुजबा’ (मिथिला मिहिर)...कथा प्रेमक स्थूल चित्र प्रस्तुत करिताहुं योगानन्द झाक आइसं तीस–पैंतीस वर्ष पूर्व लिखित ‘आम खयबाक मुंह’ सं भिन्न स्वाद दैत अइछ’ ( भारद्वाज, मोहन : १९९६) ।
७. निष्कर्ष :
दूटा मैथिली कथा संग्रह आ दूटा मैथिली साहित्यकारक कथाक नेपालीमे छनौट कके इ आलेख तयार कएल गेल अइछ । कथा आ पोथीक उपलब्धताक अभावके कारण चाइरटा फरकधारी पछुवोलौए । मुदा कथाकारक मनोदशा औसत रुपमे साझा भेटल अइछ । हमर हाइपोथेसिस आ निस्कर्षमे फरक भेटल अइछ । मैथिली कथाक समीक्षासभ बहुत कमे भेटल अइछ । जे भेट सभमे स्तुतिगान मात्र देखबामे आएल अइछ । प्रज्ञा प्रतिष्ठानसं प्रकाशित ‘नेपालको मैथिली साहित्यको इतिहास’ मे ‘आधुनिक कथासाहित्य’ शीर्षकमे लिखल जानकारी जई रुपेण आएल अइछ ओ मैथिली साहित्यिक फांटके लेल दुखद अइछ । विवरणत्मक आ कपी पेस्टबाहेक ओ अउर किछु नइ छैक । मैथिली भाषाक दुर्भाग्य कहियौ जे सीमित लोकक घेरामे एकैह आदमी साहित्यिक सभटा विद्यामे पारंगत बुझाइछ । राज्यव्यवस्थासं उपलब्ध कोषके सीमित लोकक घेरासं बाहर जेमाक गुन्जाइस नइ देखाइछ । ओसभ ‘कथाकार’ छैथ वा ‘कवि’ वा ‘समालोचक’ वा ‘पाठ्यपुस्तक लेखक’ वा ‘मैथिली विश्लेषक’ वा ‘भाषाशास्त्री’ वा ......... अपने स्पष्ट नइ छैथ । एकैह व्यक्ति संस्कृतिविद् आ ओहे कतौह आन विषयक कथित विशेषज्ञ बइन जाइत देखमामे अबैत अइछ । कृति गिन्ति करा–कराके किछु गोटा मैथिलीक नामपर दोहन कए रहल अइछ, झिल्ली झाइड रहल अछि । विराट मानसिकतावाला लोकक मैथिलीमे बड कमी देखाइत अइछ । पोथी निकाल त ओ ओफिसियल मात्र, पाठकके सुगमताक साथ भेटैय से उद्देश्य ओकरा सभके नइ रहैछ । पद कोनाके भेटत, प्राज्ञ कोनाके बनब, पुरस्कार कोनाके भेटत, भाषाक नामपर उपलब्ध बजेटके व्यक्तिगत उपयोग कोनाके करब, कूनू आयोगमे कोनाके घुसि जाएब से देखारमे अबैत अइछ । इ दुर्भाग्य थिक । दोसर दुखद बात मैथिलीमे रहल विद्धान एक दोसरके अस्तित्व स्वीकार करबाक मुडमे अखनोधरि नई अइछ । अहाक आगा मीठ–मीठ बाजत, ओझेलमे पडितैय गरिएबाक एकटा गलत संस्कृतिक विकास भेल अइछ , मिथिलामे । सकारात्मक प्रतिष्पर्धा छहिए नै मैथिलीमे । परियोजना चलौनिहारक दबदबा छै । मैथिली–मैथिली–मैथिली त ओसभ करैत छै मुदा जखन अवसरक बात अबैत अइछ त भाइवाद, नातावाद, जातिवाद, पार्टीवाद, गुटवादसहितके दर्जनौ वादसभमे ओ ओझरा जाइत छैथ । इ दुखद बात थिक । नाम मैथिली काम अपन रस्ता चिकन केनाई मात्र अइछ । निर्मम विवेचना, समिक्षा आ समालोचना बिना मैथिलीक भविष्य शुन्य बुझाइत अइछ ।
अन्त्यमें, आर्थिक एवं औद्योगिक रुपसं अत्यंत पिछडल, किंतु बौद्धिक रुपसं पर्याप्त उन्नत मिथिला क्षेत्रेमे एहेन असंख्य समस्या सभ अइछ, जे संपूर्ण देशमे नइ अइछ, ओ सब मात्र एहि ठामक क्षेत्रीय समस्या थिक । सामाजिक मान्यता, रुढि,आ पारंपरिक आचारक कैकटा बद्धमूल विडंबना मिथिलांचलक जन–जीवनमे व्याप्त अइछ । कृषि–कर्म पूर्णतया प्रकृति पर निर्धर अइछ, औद्योगिक विकास शून्य अइछ, वाणिज्यक बाट बंद अइछ , तकनीकी शिक्षाक संभावना क्षीण अइछ, रोजगारक मार्ग अवरुद्ध अइछ, धार्मिक आ सांप्रदायिक पाखंड पराकाष्ठा पर, दहेज आ निर्धनता प्रचुर मात्रामे, यौन विकृति, यौन शोषण, श्रमक अवमूल्यन, छुआछूत, जाति–विभेद, कौलिक विभेद, मानवीय संबंधक अवमूल्यन, निठल्लापन, चुगलखोरी, परनिंदा, दियादी डाह, अंधविश्वास...अइ समस्त परिस्थितिसं संघर्ष करैत मैथिली भाषिकजन जाहि तरहें अपन जीवन–यापन करैत अइछ आ अपन भूमिस. पलायन कए जीवन रक्षाक आधार जुटबैत अइछ–मिथिलांचलमे रचल जाइवाला साहित्य ओही परिदृश्यक जीवंत चित्र अखनोधरि नेपालीय मिथिला क्षेत्रमे अभावे अइछ (श्रीनिवास :२००४) । अइ दिशि ध्यान देमाक जरुरी अइछ । (नोट :: हमर ई आलेख जनकपुरसं प्रकाशित #आंजूर मैथिली पत्रिकाके साउन-भादव 2077 मे छपल अइछ )
८. सन्दर्भसूची :
- १. मौन,प्रफुल्लकुमार सिंह, नेपालको मैथिली साहित्यको इतिहास,काठमाण्डूः नेपाल प्रज्ञा प्रतिष्ठान, २०७० ।
- २. हाचेकाली, सुरेश , ऐकिक चक्रव्यूह समालोचना, काठमाण्डू :साझा प्रकाशन, २०७४ ।
- ३. ‘भ्रमर’,रामभरोस कापडि, एंटीवायरस, पटनाः नवारम्भ, २०१९ ।
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- ६. यादव, दिनेश, कथाहरुभित्रको (अ)कथा (प्रतिसमिक्षा), काठमाण्डू :कान्तिपुर, १० कार्तिक २०७५ ।
- ७. झा, धीरेश्वर (डा.धीरेन्द्र), ठूलो माछा र स्यानो माछा, नेपालः जुही, कथा अंक–३, पूर्णांक ४४,२०५६।
- ८. प्रधान, परशु आ तिवारी,नारायण,तराई–मधेसका कथा,काठमाण्डूः पैरवी प्रकाशन, दोस्रो संस्करण,२०६७ ।
- ९. विमल, डा.राजेन्द्र, ऐंजेरु, काठमाण्डू :मधुपर्क, कथा विशेषांक, जेठ २०६५ ।
- १०. झा,सुजित कुमार ‘बुलबुल’, जनकपुर, आफन्त नेपाल, २०१६ ।
- ११. शिलापत्र अनलाइन, काठमाडौं :१२ जेठ २०७६ .
- १२. मैथिली जिन्दावाद अनलाईन , विराटनगर :२८ अक्टोबर २०१६
- १३. भ्रमर, रामभरोस कापडि, तोरा संगे जयबौ रे कुजबा, मिथिला मिहिर, १९८७ ।
- १४. प्रसाद , डा. मेघन, मैथिली कथा–कोष, अनुशन्धान एवं आलोचना (१९१५–१९९५), पूनम प्रकाशन , समस्तीपुर, बिहार,१९९६
- १५. झा, डा.रमानन्द ‘रमण’ (ऐ.ऐ.)
- १६. चन्द्रेश (ऐ.ऐ.)
- १७. झा, वीरेन्द्र (ऐ.ऐ.)
- १८. भारद्वाज, मोहन (ऐ.ऐ.)
- १९. श्रीनिवास, शिवशंकर(संपादक), मैथिली कथा संचयन, नई दिल्ली : नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, २००४ ।









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